The Digital Teacher : भारतीय हॉकी के वास्तविक महानायक थे मेजर ध्यानचंद ...

भारतीय हॉकी के वास्तविक महानायक थे मेजर ध्यानचंद ...


(राष्ट्रीय खेल दिवस 29 अगस्त 2020 पर विशेष लेख)


ज 29 अगस्त है, भारतवर्ष में इसे राष्ट्रीय खेल दिवस के रूप में मनाया जाता है यह तिथि भारतीय हॉकी जगत के पितृ पुरुष मेजर ध्यानचंद की जन्म जयंती है। अपने खेल कौशल से उन्होंने भारतीय हॉकी को विश्व में जो विशिष्ट स्थान दिलाया उसके लिये समूचा कृतज्ञ राष्ट्र उनकी सेवाओं को तहे दिल से याद करते हुए उनके जन्म दिवस को खेल दिवस के रूप में मनाता है। जिस तरह से टेनिस के आईसबर्ग, ब्योन बोर्ग, क्रिकेट के लौहपुरुष-ब्रैडमैन और फुटबाल के महान ’पेले’ को जाना जाता है ठीक उसी तरह से हांकी की बात आती है तो हम मेजर ध्यानचंद की ही चर्चा करते हैं और प्रत्येक भारतीय का सीना गर्व से चैड़ा हो जाता है। वर्तमान में हमारा देश भले ही हॉकी में अन्तरराष्ट्रीय मंच पर विशेष पहचान न रख पा रहा है किंतु अतीत में झाककर देखे तो पाते है कि हॉकी के महान जादूगर मेजर ध्यानचंद उस दौर में हॉकी के एकमात्र पहले और आखिरी ‘महापुरुष’ थे।


पिता सोमेश्वर दत्त सिंह के यहां 29 अगस्त 1902 को जन्में ध्यानचन्द का असली नाम तो ध्यान सिंह था, लेकिन सेना में भर्ती होने के बाद अंग्रेजों ने उन्हें ध्यानचन्द नाम से पुकारना शुरू कर दिया और वे इसी नाम से प्रसिद्ध हो गये। उन्होंने आरम्भिक शिक्षा, झांसी में पूरी की और वे मात्र 16 साल की उम्र में ही सेना में भर्ती हो गये तथा ब्राह्मण रेजिमेंट की बटालियन में मेजर बाले तिवारी के सम्पर्क में आने के बाद उन्होंने हॉकी के आरम्भिक गुर उन्हीं से सीखे और वे ही उनके प्रारम्भिक कोच थे।
वैसे मेजर ध्यानचन्द का प्रारम्भिक झुकाव हॉकी की बजाय कुश्ती की तरफ ज्यादा था लेकिन उन्हें हॉकी खेलने के अवसर अपेक्षाकृत ज्यादा मिले इस कारण वे हॉकी के खिलाड़ी बन गए। मेजर ध्यानचन्द के बचपन के दिनों में उनके पास कई बार हॉकी स्टिक खरीदने के लिए पैसे नहीं होने के कारण वे पेड़ की टूटी डाल, टहनी और लकड़ी से हॉकी खेलते और यही जुनून उन्हें एक दिन इस खेल का महान खिलाड़ी बनाने में सफल रहा। वे अनेक बार चान्दनी रात में भी हॉकी खेलने निकल पड़ते क्योंकि उनके कोच तिवारी जी उन्हें अक्सर चान्दनी रात में ही अभ्यास के लिए ले जाते थे। उन्होंने ध्यानचन्द को टिप्स दिए कि हमेशा टीम भावना से खेलना चाहिए क्योंकि हॉकी एक टीम खेल है, अतः कभी भी एकल प्रयासों के लिए या व्यक्तिगत रिकार्ड के लिए नहीं खेलना चाहिए। कोच तिवारी जी ने उन्हें अनावश्यक ड्रिव्लिंग से भी मना किया और दनादन शॉट खेल कर गोल करने की बजाय चतुराई से और छोटे छोटे पास देकर व तकनीक का प्रयोग कर विपक्षी को छका कर गोल करने के अवसर ढूंढने चाहिए। इससे खेल में कौशलता झलकती है। दादा ने इन सीखों को अपने खेल जीवन में अच्छी तरह से उतारा और जीवन भर दूसरों को भी यही ज्ञान दिया।


मेजर ध्यानचन्द ने अपने लगभग 25 वर्षों के सक्रिय खेल जीवन में तीन ओलम्पिक खेलों में हिस्सा लिया और इन तीनों में भारत ने स्वर्ण पदक जीते। 1928, 1932 के बाद 1936 के बर्लिन खेलों में तो ध्यानचन्द ने ही भारत को नेतृत्व किया और फाइनल में 8-1 के भारी अन्तर से जर्मनी को हराने में भूमिका निभाई और तब ध्यानचन्द के खेल के हिटलर भी कायल हो गए और उन्होंने ध्यानचन्द को जर्मनी से खेलने का प्रस्ताव तक दे डाला। लेकिन ध्यानचन्द ने देश प्रेम को महत्ता दी और बतौर एक सिपाही भारत से खेलना उन्हें गवारा था बजाय कि एक मेजर जनरल के रूप में विदेशों की ओर से खेलने 1940-1944 में विश्व युध्दों के कारण ओलम्पिक खेल नहीं हो सके और तब ध्यानचन्द ने सक्रिय खेल से संन्यास लेना ही मुनासिब समझा। हालांकि वे भारत की ओर से अन्तिम बार 1947-48 में खेले और उसके बाद वे देश की ओर से मैनेजर, कोच व सलाहकार आदि भूमिकाओं में टीम के साथ विदेश भी गए। मेजर ध्यानचन्द को 1956 में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया। तीन भाईयों में मझौले ध्यानचन्द के भाई रुप सिंह व पुत्र अशोक कुमार भी अच्छे हॉकी खिलाड़ी थे और देश का प्रतिनिधित्व किया। अपने अन्तिम दिनों में वे देश में हॉकी की गिरती दशा से काफी आहत और चिंतित थे। उन्होंने खिलाड़ियों में टीम भावना से विमुख होने व अकेले खेलने की बढ़ती प्रवृत्ति पर काफी चिन्ता जताई और वे खासे नाराज भी थे। वे कहते थे कि टीम ं आपकी अहमीयत तभी है जब आप टीम के सूत्रधार बने। उन्होंने अनेक बार कहा था कि राष्ट्रीय खेल होने के बावजूद भारत में इसके समुचित विकास के लिए आवश्यक है कि यह खेल गांव-गांव व ढाणी तक पहुंचे। स्कूलों व कॉलेजों में यह खेल अनिवार्य बने तथा खिलाड़ियों को ग्रास रुट से तराश कर आगे लाने के प्रयास किए जाएं, तभी भारत दुनिया में अव्वल हॉकी देश बन सकता है। वह देश में हॉकी की गिरती दशा से आहत थे। उन्होंने 3 दिसम्बर 1979 को दुनिया को अलविदा कह दिया। उनके निधन को पूरे 41 साल हो गये हैं लेकिन लगता है कि उनका अवसान कल जैसी बात है। हम उनके पुण्य स्मरण दिवस पर अपेक्षा करते है कि उन्हे भारत रत्न सम्मान से नवाजा जाये। मरणोपरांत यह सम्मान देना देश को उनकी सेवाओं की सच्ची श्रद्धांजलि होगी।



(इस लेख का उद्देश्य विद्यार्थियों व शिक्षकों के सामान्य ज्ञान को बढ़ावा देना तथा महापुरूषों की जीवनियों व उनके महान कार्यों से जनसामान्य को अवगत कराना है)

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